“बर्फ से मिन्नत “
अब जो शुरू हुए तो थम न जाना
झूम झूम के बरसना जी भर के बरसना
पूरा दिसम्बर इस आस में बीता कि अब बरसा -2
अब जनवरी भी आ गया अब भी नहीं तो फिर कब
मार्च अप्रैल में तो नहीं करेंगे स्वागत
बस वक्त यही है खूब बरसो जम के बरसो
यहां के खेत खलिहान
पशु पक्षी नदी व तालाब
सूखे जंगल व चश्मे
तुम पर ही हर एक की आस टिकी
स्पीति के इस वीरान भूभाग पर इतना बरसो
कि सबको अगली गर्मी हरी भरी व लहलहाती मिले
घाटी घाटी कोना कोना हिम से ढक जाए
अगली गर्मी नई सुबह की शुरुआत हो जाए।
ये पंक्तियां हमें काजा से चेमत दोर्जे ने भेजी हैं। वह इस भाव के जरिए बहुत कुछ कह रहे हैं।
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