नववर्ष के पहले साहित्य संडे में पालमपुर के शायर व कवि विवेक सिंह ‘अक्फ़र’ की एक कविता व दो ग़ज़लें पेश कर रहे हैं। वी पी सिंह भारतीय सेना से रिटायर्ड कर्नल हैं। सेना में अपनी सेवाएं देने के बाद साहित्य में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहे हैं। अक्फ़र इनका तखल्लुस है। वह अपनी कविताओं में जहां पूरी तरह हिंदी के शब्दों का प्रयोग करते हैं वहीं ग़ज़ल में उर्दू शब्दों का इस्तेमाल बड़ी नफासत से करते हैं। नववर्ष के पहले साहित्य संडे में हम उनकी ऐसी ही एक कविता व दो ग़ज़लें पेश कर रहे हैं।
कविता -शुभ चेतना का उदय हो
शुभ चेतना का उदय हो
शुभ स्फूर्ति का संचार हो
जड़ सोचों में चेतन जगे
शुभ युग का शुभ श्रृंगार हो
हो जायें उसर, उर्वरा
हो हरित फिर मन की धरा
प्राचीर ईर्ष्या द्वेष की
हो ध्वस्त टूटे चरमरा
शुभ सोच हृदयों में जगे
शुभ अंकुरित फूले फले
शुभ-शुभ ही हो हर दिशा में
शुभ-कर्मों से भुजबल सजे
अब स्वतः पर अभिमान हो
क्या खो दिया है ज्ञान हो
इतिहास का और संस्कृति का
पुनः नव निर्माण हो
हो स्थापना अभिमान की
जन-जन के गौरव गान की
अब एक स्वर जयघोष हो
ध्वज तिरंगे की शान की
अब धर्म का विस्तार हो
जयचंदों का प्रतिकार हो
विच्छेदों में अब संधि हो
एकत्व फिर साकार हो
अब पुनः वह रौरव जगे
भारत का फिर गौरव जगे
उद्यान के हर सुमन में
अभिमान का सौरव जगे
हित राष्ट्र का संज्ञान हो
नव क्रांति का आह्वान हो
हो दृष्टि में फिर लक्ष्य अब
माँ भारती का मान हो
शुभ चेतना का उदय हो
शुभ स्फूर्ति का संचार हो
जड़ सोचों में चेतन जगे
शुभ युग का शुभ श्रृंगार हो
वी पी सिंह ‘अक्फ़र’ की दो ग़ज़लें
ग़ज़ल
एक उम्मीद फिर नयी होगी
जगने को नींद फिर नयी होगी
दौर फिर इक नया शुरू होगा
और ताकीद फिर नयी होगी
और हासिल को हौसले होंगे
जोशे तौतीद फिर नयी होगी
खोजने को नये मुकामों को
गोया क़े दीद फिर नयी होगी
फिर रज़ब हों नये श’बन शव्वल
अब से तौकीद फिर नयी होगी
साल ‘अक्फ़र’ नया मुबारक हो
ईद – बकरीद फिर नयी होगी
हर्फ़ों के मायने : ताकीद – हिदायत, जोशे तौतीद – मजबूत किये इरादे, रज़ब – इस्लामिक साल सातवाँ महीना जिसमें शांति और सद्भाव की कामना की जाती है, श’बन – इस्लामिक साल का आठवाँ महीना जो विकास और उन्नति का प्रतीक है, शव्वाल – इस्लामिक साल का दसवाँ महीना जो व्रत और उपवास यानि त्याग का प्रतीक है, तौकीद – ताकीद, ईद – खुशियों का प्रतीक, बकरीद – कुर्बानी का प्रतीक।
ग़ज़ल
अपनी औकात को बताया खूब है हमको
गुज़रे इस साल ने जताया खूब है हमको
दीद के सामने है देखते नहीं हैं हम
हाँ! गये साल ने दिखाया खूब है हमको
खुद हुआ जाता था खुदा ये आदमी लेकिन
देख लो जात पे वो लाया खूब है हमको
जा रहा है मगर वो छाप छोड़ कर अपनी
अपना अहसास तो कराया खूब है हमको
हम नहीं सीखते ये बात है अलग लेकिन
इस गये साल ने सिखाया खूब है हमको
बहुत सुन्दर रचना और लाजवाब ग़ज़ल। बधाई।