यह वाकया है दिल्ली बस स्टेशन का, लेकिन आपको हर बड़े छोटे शहर के बस या रेल स्टेशन पर मिल जाएंगे ऐसे किताब वाले— एक पूरा शरीर कई किताबों के बोझ तले दबा हुआ चलती-फिरती दुकान। आपको देखकर आपके पास रुक जाएगा । उसके पास अमूमन अंग्रेजी और कुछेक हिन्दी के बड़े लेखकों की किताबें होंगी । हर किस्म की किताबें साहित्य से लेकर राजनीति , समाजिक, अर्थशास्त्र और दर्शन से जुड़ी हुईं । आपको विश्वास दिलाएगा कि दुनिया के बेहतर लेखकों की किताबें हैं उसके पास। एक बार खरीद लीजिये आप निराश नहीं होंगे । लेखकों के नाम इनको मुंह जुबानी याद है। शायद ही कभी गलत नाम बतायें, लेकिन शायद ही किसी लेखक को इन्होंने पढ़ा हो और शायद ही किसी महान लेखक ने किताब बेचने की इनकी जद्दोजहद को देखा हो।
गर्मियों में पसीने से तर-ब-तर तो सर्दियों में ठन्ड से ठिठूरता हुए स्टेशन पर किताब बेचने वालों का रोजी-रोटी के लिये संघर्ष इन्हें महान नहीं बनाएगा कभी । यह लोग खुश हैं किताब बिकने से दो जुगत रोटी का इन्तजाम हो जाने पर । उसके पास अरूंधति राय, अमीश त्रिवेदी, चेतन भगत , पायलो कोयलो, लियो तोलस्तोय, खलील ज़िब्रान, ख़ुशवंत सिंह जैसे तमाम ख्यातिप्राप्त लेखकों की किताबें थीं ।
आज का समय इन्टरनेट, सोशल मीडिया का है। युवा इन्हीं के इन्द्रजाल से उलझा हुआ है। किताबों में रुचि कम होती जा रही है। लाइब्रेरियो के पाठकों में भी कमी आने लगी है। गूगल ऐसे हर इक जिन्दगी में घुस गया है। ऐसे स्टेशनों पर जब इन किताबें बेचने वालों को देखता हूँ तो ऐसे लगता है यह लोग किताबों के दौर की आखिरी लड़ाई लड़ रहे हो । यह लोग बड़ी ईमानदारी से किताबों के अस्तित्व को बचाने में लगे हैं । इसके पीछे बस थोड़ी सी रोज़ी रोटी का लालच है। यह लड़ाई आज के दौर में किताबें लिखने वाला लेखक भी ईमानदारी से नहीं लड़ पा रहा। वह भी किताबें छापकर गूगलमयी होता जा रहा है।
शायद किताबें बेचने वालों के संघर्ष से कोई बड़ा लेखक वाकिफ हो। उन्हें देखना चाहिए इनका संघर्ष भी कैसे किस तरह हर रोज पूरे शरीर को किताबों की चलती-फिरती दुकान बनाकर घूमते हैं वह—किसी अजनबी से डान्ट भी खाते हैं, शरमिन्दा भी होना पड़ता है। — लेकिन क्या करें साहब रोज़ी रोटी है यह सब तो चलता रहता है, आप कोई किताब खरीद लो साहब , हमारे पास अच्छे लेखकों की किताब है। हर किसी से हर स्टेशन पर यही कहते किताब बेचने वाले ।।।
एस अतुल अंशुमाली