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Friday, November 22, 2024

बुल्ले शाह की रचनाओं में लोक संस्कृति : ‘गंढां’ में विवाह की रस्म का उल्लेख

बुल्ले शाह की रचनाएं जहां साहित्य के लिए एक महान विरासत है, वहीं पंजाबी लोक साहित्य का अलौकिक जीवन भी इनमें है। जब भी बुल्ले शाह का जिक्र होगा और बुल्ले शाह की रचनाओं की बात की जाएगी, तो बुल्लेशाह की महान रचनाओं के साथ पंजाबी लोक साहित्य को भी जोड़ा जाएगा, क्योंकि बुल्लेशाह ने लोक साहित्य को भी अपने साहित्य में संजोया है। ऐसी ही एक रचना है,  ‘ गंढां ‘ प्राचीन काल में पंजाब में जब लड़की के विवाह का मुहूरत निकाला जाता था, तो लड़की वाले लग्न से पहले लड़के वालों को एक रेशमी धागे को उतनी गांठे डाल कर भेजते थे, जितने दिन विवाह में शेष रहते थे। उसी का वर्णन बुल्ले शाह ने बड़ी खूबसूरती के साथ ‘गंढां’ में किया है। उसी रचना की कुछ पंक्तियां है।

कहो सुरती गल्ल काज दी मैं गंढां केतीआ पाउं।

साहे ते जंज आवसी हुण चाही गंढ घताउं।

बाबल आखया आण के, तै साहवरया घर जाणा।

रीत ओथों दी और है मुड़ पैर न एथे पाणा।

गंढ पहली नूं खोल्ह के मैं बैठी बरलावां।

ओड़क जावण जावणा हुण मैं दाज रंगावां।

 

 

बुल्ला की जाणे जात इश्क दी कौण

इश्क दा बुल्ला आज भी इश्क दी जात से बेखबर है। बुल्ले दा इश्क एक कलंदर का इश्क है। ऐसे कलंदर का इश्क, जिसकी बंदगी ने अपने खुदा को बस अपने अंदर महसूस किया है और उसकी इबादत की है।

बुल्ला की जाणे जात इश्क दी कौण

ना सूहां ना कंम बखेड़े, वंणे जागण सौण।

रांझे नूं मैं गालियां देवां, मन विच करां दुआई।

मैं ते रांझा इक्को कोई, लोकां नूं अजमाई।

जिस बेले विच बेली दिस्से, उस दीआं लवां बलाई।

बुल्ला शैह नूं पासे छड्ड के, जंगल वल्ल न जाई।

बुल्ला की जाणे जात इश्क दी कौण।

सूफी काव्य धारा के प्रमुख कवियों में सूफी संत बुल्ले शाह का नाम एक ऐसे सूफी संतों में लिया जाता है, जिसने हर जात-मजहब के कमज़्कांडों से अलग होकर अपने इश्क को मुकाम दिया। वो मुकाम दिया जिसके रास्ते आज भी इश्क करने वाले कलंदरों के लिए खुले हैं, अगर उनका इश्क जुनूनी न होकर सच्चा हो। इश्क दा बुल्ला आज भी इश्क की जात से बेखबर है। जात, धर्म के बंधन में रहने वाला समाज अगर अपनी इन बेवजहों की सीमाओं से खुले तो शायद हर तरफ बुल्ले का इश्क नजर आए। इश्क का कोई नाम नहीं होता है। हां कहानियों में इश्क शामिल रहता है, अलौकिक अभिव्यक्तियों की तरह। उन अलौकिक अभिव्यक्तियों की तरह, जिनके प्रसंग मानवता को सबक सिखाते रहते हैं। प्रेम का पाठ पढ़ाते रहते हैं। ऐसा ही एक प्रसंग है, जिसकी कल्पना वारिस शाह ने भी की  थी। हीर- रांझा एक ऐसी ही सच्चे इश्क की दास्तान है, जिसके लिए वारिस शाह को जाना जाता है।

 

बुल्ले शाह ने भी अपनी कुछ काफियां इस अजीम और सच्ची मोहब्बत के नाम की है। हीर-रांझा के माध्यम से बुल्ले शाह कहते हैं कि आत्मा-परमात्मा से मिलने के लिए किस तरह व्याकुल रहती है। हीर आत्मा है, जो अपने परमात्मा रांझा से मिलना चाहती है। उसी के इश्क में समाहित होकर अपने-आप को फना कर देना चाहती है। बुल्ले शाह अपनी एक काफिया में कहते हैं।

भुल्ली हीर ढूंडेंदी बेले।

रांझा यार बुक्कल विच खेले।

मैंनू सुध बुद्ध रही न सार।

इश्क दी नवियों नवीं बहार।।

एक और रचना जिसमें हीर के लिए बुल्ले शाह लिखते हैं-

रांझा-रांझा करदी नी मैं आपे रांझा होई।

सद्दो नी मैंनू धीदो रांझा हीर न आखे कोई।

रांझा मैं विच मैं राझे विच होर खयाल न कोई।

मैं नहीं ओह आप है अपनी आप करे दिलजोई।

हत्थ खूंडी मेरे अग्गे मंगू मोढ़े भूरा लोई।

बुल्ला हीर सलेटी वेखो कित्थे जा खलोई।

बुल्ले शाह ने इश्क के लिए लिखा और बस इश्क ही इनका मकसद रहा और अपने सच्चे इश्क का प्रचार ही इन्होंने किया। बुल्ले शाह की रचनाओं में जहां गहरा रूहानी दशज़्न देखने को मिलता है, वहीं बुल्ले शाह ने कुछ ऐसी रचनाएं भी लिखीं, जिनमें लोक साहित्य की महक उस समय के समाज के रीति-रिवाज और संस्कृतियों का संगम देखने को मिलता है।

 

बुल्ला की रचनाओं में लोक संस्कृति : ‘गंढां’ में विवाह की रस्म का उल्लेख

बुल्ले शाह की रचनाएं जहां साहित्य के लिए एक महान विरासत है, वहीं पंजाबी लोक साहित्य का अलौकिक जीवन भी इनमें है। जब भी बुल्ले शाह का जिक्र होगा और बुल्ले शाह की रचनाओं की बात की जाएगी, तो बुल्लेशाह की महान रचनाओं के साथ पंजाबी लोक साहित्य को भी जोड़ा जाएगा, क्योंकि बुल्लेशाह ने लोक साहित्य को भी अपने साहित्य में संजोया है। ऐसी ही एक रचना है,  ‘ गंढां ‘ प्राचीन काल में पंजाब में जब लड़की के विवाह का मुहूरत निकाला जाता था, तो लड़की वाले लग्न से पहले लड़के वालों को एक रेशमी धागे को उतनी गांठे डाल कर भेजते थे, जितने दिन विवाह में शेष रहते थे। उसी का वर्णन बुल्ले शाह ने बड़ी खूबसूरती के साथ ‘गंढां’ में किया है। उसी रचना की कुछ पंक्तियां है।

कहो सुरती गल्ल काज दी मैं गंढां केतीआ पाउं।

साहे ते जंज आवसी हुण चाही गंढ घताउं।

बाबल आखया आण के, तै साहवरया घर जाणा।

रीत ओथों दी और है मुड़ पैर न एथे पाणा।

गंढ पहली नूं खोल्ह के मैं बैठी बरलावां।

ओड़क जावण जावणा हुण मैं दाज रंगावां।

क्रमश:

एस—अतुल अंशुमाली

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